Tuesday, March 13, 2012

"मैं उगा हूँ

तेरी नज़रों के परे

soach
जरा

यदि तेरी आँख

अपनी ही पुतली को

देख सकती॥


इतना सा ही तो

मैं हूँ

तुझ से परे"


कवि का नाम याद नहीं...पंजाबी में मूल कविता है
कविता मुझेअच्छी लगी ...इसलिए यहाँ पोस्ट कर रहा हूँ

Friday, August 15, 2008

पाश की कविताओं को पढ़ते हुए मन में अजीब सा होने लगता है , ऐसा आदमी भी था कोई और ऐसी सोच जो केवल उसके विचारों में ही नही थी बल्कि उसके व्यव्हार में भी। आज स्वतंत्रता दिवस पर उनकी एक कविता :


धर्म
- दीक्षा के लिए विनयपत्र

मेरा
एक ही बेटा है धर्मगुरु !
आदमी बेचारा सिरपर रहा नही
तेरे इसतरह गरजने के बाद
आदमी तो दूर दूर तक नही बचे
अब सिर्फ़ औरते है या शाकाहारी दोपाये
जो उनके लिए अन्न कमाते है
धर्मगुरु , तुम सर्वकला- संपन्न हो!
तुम्हारा एक मामूली सा तेवर भी
अच्छे -खासेपरिवारों को बाड़े में बदल देता है
हर कोई दूसरे को कुचल कर
अपनी गर्दन तीसरे में घुसेड़ता है
लेकिन धर्मगुरु , मेरी तो एक ही गर्दन है-
मेरे बच्चे की .......
और आदमी बेचारा सिर पर रहा नही



मैं तुम्हारे बताये हुए ईष्ट ही पुजुगीं
मैतुम्हारे पास किए हुए भजन ही गाऊगीं
मै दूसरे सभी धर्मो को फिजूल कहूँगी
लेकिन धर्मगुरु, मेरी एक ही जुबान बची है --
मेरे बच्चे की ......
और आदमी बेचारा सिर पर रहा नही

मै पहले बहुत पगलाई रही हूँ अब तक
मेरे परिवार का जो धरम होता था
मेरा उस पर भी कभी धयान नही गया
मै परिवार को ही धरम मानने का कुर्फ़ करती रही हूँ
मै पगली सुन - सुना कर , पति को ही ईश्वर कहती रही हूँ
मेरे जाने तो घर के लोगों की मुस्कराहट और त्योरी ही
स्वर्ग -नरक रहे -
मै शायद कलियुग की बीट थी धर्मगुरु !
तुम्हारी गरज से उठी धरम की जयकार से
मेरे से बिल्कुल उड़ गया है कुफ्र का कोहरा
मुझ मुई का अब कोई अपना सच न दिखेगा
मै तेरे सच को ही एक मात्र सच माना करूंगी ...
मै औरत बेचारी तेरे जांबाज़ शिष्यों के सामने हूँ भी क्या
किसी भी उम्र में तेरी तलवार से कम खूबसूरत रही हूँ
किसी भी रौ में तुम्हारे जलाल से फीकी रही हूँ
मैं तो थी ही नही
बस तुम ही तुम हो धर्मगुरु !


मेरा एक ही बेटा है धरमगुरु !
वेसे अगर सात भी होते
वे तुम्हारा कुछ न कर सकते थे
तेरे बारूद में इश्वरीय सुगंध है
तेरा बारूद रातों को रौनक बांटता है
तेरा बारूद रास्ता भटको को दिशा देता है
मैं तुम्हारी आस्तिक गोली को अघर्य दिया करूंगी
मेरा एक ही बेटा है धर्मगुरु !
आदमी बेचारा सिरपर रहा नही

--पाश